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लेखनी कहानी -09-Jan-2023 त्रिया चरित्र

त्रिया चरित्र जाने नहीं कोई । 
खसम मार कर "सती" होई ।। 

यह कहावत कोई ऐसे ही नहीं बनी है । इसके पीछे एक लंबी कहानी है । इस कहावत का अर्थ है कि स्त्री का चरित्र एक अबूझ पहेली है , उसे कोई नहीं जान सकता है । वह जलेबी की तरह जटिल व्यक्तित्व की स्वामिनी है जो "कुलटा" होते हुए भी "सती सावित्री" दिखने का प्रयास करती है । वह अपने पति को मारकर "सती" होने का स्वांग रच लेती है ।  पर ऐसा चरित्र समस्त स्त्रियों का हो, यह जरूरी नहीं है । कुछ स्त्रियां ही ऐसे चरित्र की मालकिन होती हैं, समस्त नहीं । आओ , आज एक कहानी सुनते हैं कि यह कहावत कैसे बनी । 

पंपापुर नामक एक राज्य था जहां पर विलासराय नामक राजा राज्य करता था । राजा का जैसा नाम वैसे ही उसके गुण थे । अर्थात वह एक विलासी राजा था । पूरे राज्य में "स्वच्छंदता" का बोलबाला था । न केवल पुरुषों अपितु स्त्रियों का भी हद दर्जे तक चारित्रिक पतन हो गया था । विवाहेत्तर संबंध कायम करना एक आम बात थी उस राज्यमें । 

उस राज्य में सुधर्मा नामक एक लकड़हारा रहता था । उसकी पत्नी का नाम सुलक्षणा था । सुधर्मा सुबह-सुबह लकड़ी काटने वन में चला जाया करता था और देर शाम तक वापस लौटता था । दिन भर घर में सुलक्षणा अकेली रहती थी और "बोर" होती थी । सुलक्षणा अतीव सुंदर स्त्री थी और "आत्म मुग्धा" नायिका की तरह अपने रूप यौवन को आईने में देख देखकर हर्षित होती रहती थी । शाम को सुधर्मा थका हारा आता था और खाना खाकर जल्दी ही सो जाया करता था । सुलक्षणा घर का काम निपटा कर और  सज संवर कर जब तक "सेज" पर आती थी तब तक सुधर्मा "खर्राटों" की दुनिया में सैर करने चला जाता था । बेचारी सुलक्षणा मन मसोस कर सेज पर तड़पती रह जाती थी । उसका अतृप्त यौवन खून के आंसू रोने लगता था । 

घर गृहस्थी का सारा सामान सुलक्षणा ही लाती थी । एक दिन सेठ कहीं गया हुआ था और उसकी दुकान पर उसका नौजवान पुत्र चिंतामणि बैठा था । वह सुंदर तथा बलिष्ठ था । सुलक्षणा उसकी जवानी पर फिदा हो गई । सेठ के बेटे चिंतामणि ने भी सुलक्षणा जैसी सुंदर और सुडौल स्त्री पहली बार देखी थी इसलिए वह भी सुलक्षणा की ओर आकर्षित हो गया । दो जवां प्यासे दिल मिल गये तो अब बदन मिलना भी आवश्यक हो गया था । चिंतामणि ने एक "मिलन स्थल" भी खोज लिया था । सुलक्षणा रोजाना सुधर्मा के सो जाने पर चिंतामणि से मिलने जाने लगी और वह सुबह होने से पहले वापिस आ जाती थी । सुलक्षणा और चिंतामणि की रंगरेलियां बेरोकटोक चलने लगी । 

एक दिन सुधर्मा जंगल में लकड़ी काटने गया तो उसने देखा कि एक साधु बेहोश पड़ा है । सुधर्मा ने उस साधु पर ठंडे जल के कुछ छींटे मारे तो साधु ने आंखें खोल दी । सुधर्मा ने साधु को बैठाया और ठंडा जल पिलाया तो उसमें कुछ जान आयी । थोड़ी देर बाद उसे खाना भी खिलाया तो उसके बदन में थोड़ी ताजगी आ गई और वह चहलकदमी करने लग गया । सुधर्मा ने उस साधु से आग्रह किया कि कुछ दिन वह उसका आथित्य स्वीकार करे । सुधर्मा के आग्रह को साधु महाराज टाल नहीं सके और शाम को वे साधु महाराज सुधर्मा के साथ उसके घर आ गये । 

साधु को देखकर सुलक्षणा के तन बदन में आग लग गई । उसे लगा कि अब उसकी चोरी पकड़ी जा सकती है इसलिए वह साधु को घर में नहीं रखने की जिद पर अड़ गई । सुधर्मा ने उसके सामने समर्पण करते हुए कह दिया कि साधु महाराज बस एक दो दिन ही रहेंगे । इस पर सुलक्षणा राजी हो गई । रात में सबने खाना खाया और साधु के लिए आंगन में चारपाई बिछा दी । सुधर्मा खाना खाने के तुरंत बाद ही सो गया था लेकिन सुलक्षणा की आंखों में नींद कहां थी , वहां तो चिंतामणि की सूरत बसी हुई थी । उसका मन उड़कर चिंतामणि के पास चला गया था मगर बदन तो सुधर्मा के घर में ही पड़ा था । यौवन को मन से ज्यादा तन की जरूरत होती है । सुलक्षणा को अपना बदन जलता हुआ महसूस होने लगा । उस आग बुझाने के लिए उसे चिंतामणि के सागर की आवश्यकता थी । 

सुलक्षणा उठी और उसने देखा कि सुधर्मा खर्राटे ले रहा है । तब वह साधु के पास गई । साधु भी चुपचाप लेटा था । सुलक्षणा ने उसे सोता हुआ जाना और फिर वह बन संवर कर चिंतामणि से मिलने के लिए चल दी । 

साधु एक अनजान व्यक्ति के घर में ठहरा था और सुलक्षणा ने उसे बड़ी मुश्किल से घर में रहने दिया था जबकि उसने यहां रहने के लिए कहा ही नहीं था । सुलक्षणा के व्यवहार को देखकर "दाल में जरूर कुछ काला है" साधु महाराज के मन ने कहा और वह सोचता ही रहा ।  इसलिए उसे नींद नहीं आई और उन दोनों के क्रिया कलाप देखता रहा । जब सुलक्षणा उसके पास आई तब वह दम साधकर चुपचाप लेटा रहा । उसने सुलक्षणा को बन संवर कर कहीं पर जाते हुए देख लिया था मगर वह चुपचाप पड़ा रहा । उसने यह भी देख लिया था कि भोर होने से पहले ही सुलक्षणा  वापस आ गई थी । उसे अब सारा माजरा समझ में आ गया था । 

दूसरे दिन सुधर्मा जब जंगल से लौटा तो साधु ने उसे अपनी पत्नी से सावधान रहने को कहा और यह भी कहा कि उसकी पत्नी किसी से मिलने रात को कहीं जाती है । इस पर सुधर्मा को सुलक्षणा पर बहुत गुस्सा आया और उसने सुलक्षणा को मारा पीटा भी बहुत । उसने सुलक्षणा को एक खंभे से बांध दिया और सो गया । 

सुधर्मा के मकान के पड़ोस में हरीराम नाई रहता था जिसकी पत्नी का नाम सुशीला था । सुलक्षणा की तरह सुशीला भी एक चरित्रहीन स्त्री थी । उसका भी एक यार था । चूंकि दोनों एक ही नाव पर सवार थीं इसलिए दोनों घनिष्ठ सहेली बन गई थीं । दोनों सहेलियां एक दूसरे के संदेश लाने ले जाने का काम भी करती थीं इसलिए दोनों स्त्रियां एक दूसरे के प्रेमियों से भलीभांति परिचित थीं । 

उस रात जब काफी देर तक सुलक्षणा नहीं आई तो चिंतामणि को चिंता होने लगी । वह भागा भागा सुशीला के पास आया और सुलक्षणा को बुला लाने के लिए सुशीला से कहने लगा । सुशीला सुलक्षणा के घर गई तो उसे खंभे से बंधा पाया । तब सुलक्षणा ने सारी कहानी बता दी । सुशीला ने चिंतामणि का संदेश सुलक्षणा को दिया तो सुलक्षणा ने अपने बंधे होने की मजबूरी बता दी । इस पर सुशीला ने कहा "ऐसा कर, मैं तेरे बंधन खोल देती हूं । तू चिंतामणि से मिल आ तब तक मैं यहां बंधी रहूंगी" । उसके इस प्रस्ताव पर सुलक्षणा की बांछें खिल गई और वह अपनी जगह सुशीला को बांधकर चिंतामणि से मिलने चली गई । 

साधु महाराज यह सब खटराग देख सुन रहे थे मगर वे चुपचाप खाट में दम साधे पड़े रहे । रात में जब सुधर्मा की नींद खुली तो उसे सुलक्षणा पर थोड़ी दया आई और उसने सोचा कि उसने कुछ ज्यादा कठोर रूप धर लिया है । अब सुलक्षणा को खोल देना चाहिए । लेकिन मन ने कहा "अगर वह फिर से अपने प्रेमी से मिलने चली गई तो " ? अब इस सवाल का कोई जवाब नहीं था उसके पास । उसने सोचा कि इस बार यदि सुलक्षणा वचन दे दे कि वह अपने प्रेमी से मिलने नहीं जायेगी, तब वह उसे खोल सकता है । 

सुधर्मा ने जोर से आवाज लगाई "कलंकिनी, अगर मुझे तू यह आश्वासन दे दे कि तू उससे मिलने नहीं जायेगी तो मैं तेरे बंधन खोल दूंगा" । लेकिन वहां पर तो सुलक्षणा नहीं अपितु सुशीला बंधी हुई थी । सुशीला ने सोचा कि यदि वह कुछ भी बोलेगी तो उसकी आवाज से सुधर्मा को पता चल जायेगा कि वह सुलक्षणा नहीं कोई और है तो फिर सारा भांडा ही फूट जायेगा । इसलिए वह कुछ नहीं बोली और चुप रही ।

 उसके इस तरह चुप रहने पर सुधर्मा को गुस्सा आ गया और उसने गुस्से में आकर कुल्हाड़ी फेंक कर दे मारी । कुल्हाड़ी सीधी सुशीला की नाक पर जाकर लगी और उसकी नाक कट गई । वह अंदर ही अंदर सारा दर्द सहन कर गई मगर उसने एक भी कराह नहीं निकलने दी । कुल्हाड़ी फेंक कर मारने  से सुधर्मा का गुस्सा थोड़ा ठंडा हो गया और वह सो गया । 

उधर सुलक्षणा आज जल्दी ही वापस आ गई और जल्दी जल्दी सुशीला के बंधन खोल डाले । तब सुशीला ने अपनी कटी हुई नाक दिखाई और सारा वाकया सुना डाला । सुलक्षणा यह देखकर और सुनकर कांप उठी मगर अब क्या हो सकता है ? सुशीला अपने घर को चली गई और सुलक्षणा फिर से उसी खंभे से बंधी खड़ी हो गई । साधु बाबा चारपाई पर पड़े पड़े यह सारा त्रिया चरित्र देख रहे थे ।

थोड़ी देर बाद जब सुधर्मा की नींद खुली तो उसने अपनी पत्नी सुलक्षणा से फिर कहा "देख, तू अब भी मुझसे सच सच कह दे और मुझे यह वचन दे दे कि तू फिर कभी उससे मिलने नहीं जायेगी तो ठीक रहेगा नहीं तो जिस प्रकार मैंने तेरी नाक काटी है, अब तेरे दोनों कान भी काट दूंगा । फिर  तू नकटी और बूची हो जायेगी तब तेरा घर से निकलना ही मुश्किल हो जायेगा" । 

इन शब्दों को सुनकर सुलक्षणा के षड्यंत्रकारी दिमाग में एक युक्ति सूझी । उसे पता था कि नाक उसकी नहीं सुशीला की कटी है और इस बात का पता सुधर्मा को नहीं है । अत : इस नासमझी का फायदा उठाना चाहिये । तब उसने "त्रिया चरित्र" दिखलाते हुए नाटक करना शुरू कर दिया और जोर जोर से रोना शुरू कर दिया । रोते रोते बोली "तुम मर्द लोग बड़े बेरहम होते हो । अपनी पत्नी पर झूठा इल्जाम लगाकर उसकी नाक काट देते हो । मैं कोई कुलटा स्त्री नहीं हूं जैसा कि तुमने मुझ पर आरोप लगाया था, मैं एक पतिव्रता स्त्री हूं और मैं आज तुम्हें यह सिद्ध करके दिखा दूंगी कि मैं कितनी "सती" , नेक और पतिव्रता हूं" । 

ऐसा कहकर उसने आसमान की ओर देखा और भगवान को संबोधित करते हुए बोली "हे प्रभु, हे माता गौरी , हे समस्त देवी देवताओ, हे दसों दिशाओ, आप सभी मेरी बात ध्यान से सुनो और मेरे साथ न्याय करो । मैं यदि तन मन और वचन से एक पतिव्रता और सती स्त्री हूं तो मेरे पति ने मुझ पर बदचलन होने का आरोप लगाकर जो मेरी नाक काटी है, वह नाक फिर से जुड़ जाये और एक पतिव्रता स्त्री क्या होती है यह पूरे जग को पता चल जाये" । और वह "ओम् नमो भगवते वासुदेवाय नम:" का जाप करने लगी । 

सुधर्मा यह सब देख और सुन रहा था । अभी तीन चार बार ही मंत्र का जाप हुआ था कि सुलक्षणा चीख पड़ी "मेरी नाक जुड़ गई । मेरी नाक पहले जैसी हो गई । हे भगवान तेरा लाख लाख शुक्र है जो तूने एक पतिव्रता स्त्री की लाज रख ली और मुझ पर बदचलन होने का झूठा आरोप जो मेरे पति ने लगाया था उसे खारिज कर दिया । मैं आपका यह उपकार जिंदगी भर नहीं भूलूंगी, भगवान" । और उसने नीचे धरती पर झुककर भगवान को प्रणाम किया । तब तक सुबह हो गई थी । सुधर्मा को उसकी बातों पर विश्वास नहीं हुआ इसलिए वह उसके पास गया और उसकी नाक को छूकर देखा , वह पहले जैसी ही थी । वह सुलक्षणा को आश्चर्य से देखता ही रह गया और अपनी गलती पर पछताने लगा । 

उधर सुशीला ने अपने चेहरे पर एक कपड़ा इस तरह लगा लिया कि नाक दिखाई नहीं दे । सुबह होने पर नाई हरिराम अपनी दुकान जाने लगा तो उसने अपनी पेटी संभाली । उसमें एक बड़ा वाला उस्तरा नहीं था । उसने सुशीला से कहा कि बड़ा वाला उस्तरा ला दे । सुशीला नाक कटने से चिढी हुई सी थी तो उसने हरिराम की तरफ एक चाकू फेंक दिया और कहा "ले , यह ले तेरा बड़ा वाला उस्तरा" । 

बड़े वाले उस्तरे की जगह चाकू देखकर हरिराम का पारा सातवें आसमान पर चढ गया । उसने अपनी पेटी खोली और एक छोटा उस्तरा निकाला और उसे सुशीला की ओर फेंक कर मारा । सुशीला की चाल कामयाब हो गई । वह यही तो चाहती थी । उसने उस्तरा हाथ में पकड़ा और जोर जोर से चिल्लाने लगी "अरे, मेरी नाक काट दी । हाय, मेरी नाक काट दी" । 

उसकी आवाज सुनकर अड़ोसी पड़ोसी आ गये और वहां भीड़ लग गई । लोगों ने देखा कि सुशीला की नाक कटी हुई है और उसके हाथ में एक छोटा उस्तरा है । सुशीला कहे जा रही थी कि "उसके पति ने उसे बदचलन बता कर बेवजह ही उसकी नाक इस उस्तरे से काट दी है" । लोगों ने सुशीला की बात सही मान ली और हरिराम नाई की खूब धुनाई कर दी । इतनी देर में राजा के सिपाही आ गये और हरिराम नाई को पकड़कर ले गये । 

राजा की अदालत में मुकदमा चला । सुशीला ने स्वयं को सती सावित्री, पतिव्रता बताते हुए अपने पति पर आरोप लगाया कि उसने उसे बदचलन बता कर उसकी नाक उस उस्तरे से काट ली थी । उस्तरा भी था और सुशीला की नाक भी कटी हुई थी । एक पत्नी अपने पति पर मिथ्या आरोप क्यों लगायेगी ? अत : राजा ने हरिराम नाई को दोषी मानते हुए उसे मृत्युदंड सुना दिया । इस मृत्युदंड की चर्चा पूरे राज्य में फैल गई । सुधर्मा के घर में ठहरे हुए साधु महाराज ने भी जब हरिराम नाई को मृत्युदंड की बात सुनी तब वह विचलित हो गया । उसे दोनों स्त्रियों के "त्रिया चरित्र" का संपूर्ण ज्ञान था जिसकी चपेट में एक निर्दोष व्यक्ति हरिराम नाई आ रहा था और अपनी जान से हाथ धो रहा था । तब वह राजा के पास गया और संपूर्ण घटनाक्रम राजा को कह सुनाया । राजा ने सुधर्मा और सुलक्षणा को दरबार में बुलवाया और कड़क कर सारी बातें सच सच बताने के लिए कहा । तब सुलक्षणा और सुशीला ने सारी बातें सच सच बता दी और अपने "स्वांग" को भी बता दिया । 

अब मामला पूरी तरह से साफ हो चुका था । दोनों स्त्रियों का अपराध सामने आ गया था और हरिराम नाई निर्दोष सिद्ध हो गया था । इस षड्यंत्र के लिए दोनों "कुलटाओं" को भीषण दंड दिया जाना था लेकिन स्त्री, बालक और साधु को मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता है , इस शास्त्रीय विधान के अनुसार दोनों स्त्रियों के नाक कान काटकर उन्हें छोड़ दिया गया । 

इस पूरे वृतांत को देखकर साधु महाराज बोल पड़े 

त्रिया चरित्र जाने नहीं कोई ।
खसम मार कर "सती" होई ।। 

समाप्त 

श्री हरि 
9.1.23 


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6 Comments

प्रिशा

04-Feb-2023 07:39 PM

Behtarin rachana

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Hari Shanker Goyal "Hari"

05-Feb-2023 02:35 AM

धन्यवाद जी

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Mahendra Bhatt

13-Jan-2023 10:21 AM

शानदार

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Hari Shanker Goyal "Hari"

13-Jan-2023 04:34 PM

बहुत बहुत आभार आदरणीय

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Gunjan Kamal

09-Jan-2023 10:32 AM

🙏🏻🙏🏻

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Hari Shanker Goyal "Hari"

09-Jan-2023 10:21 PM

💐💐🙏🙏

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